तथ्य और आंकड़े
जबकि भारत सरकार प्राथमिक शिक्षा पर बहुत अधिक जोर दे रही है, भारत की 1991 की जनगणना के अनुसार, 6 से 14 वर्ष की आयु के कम से कम 3.5 करोड़ बच्चे स्कूल में नहीं जा रहे हैं। इसमें थोड़ा और जोड़ें तो कक्षा 1 में दाखिला लेने वाले सभी बच्चों में से एक तिहाई से कुछ अधिक ही कक्षा 8 तक जाते हैं। इसमें से 53% के आसपास 5 से 9 वर्ष आयु वर्ग की लड़कियां हैं, जो अभी-भी अशिक्षित हैं।
प्राथमिक शिक्षा को 6 से 14 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों के लिए प्रारम्भिक शिक्षा भी कहा जाता है। इन वर्षों को बच्चों के लिए महत्वपूर्ण बुनियादी वर्ष माना जाता है, जब उनके जीवन की आधारभूत बातें सुदृढ़ता प्राप्त करती है, उनका व्यक्तिगत कौशल, उनकी समझ, भाषागत योग्यता, परिष्कृत रचनात्मकता आदि विकसित होते हैं।
आज, प्राथमिक स्तर पर सभी मान्यता प्राप्त विध्यालयों में से 80% विध्यालय सरकार द्वारा संचालित या समर्थित हैं, जिसके कारण भारत शिक्षा प्रदान करने वाला सबसे बड़ा देश है। नरेंद्र मोदी सरकार ने शिक्षा से जुड़ी कई आशाजनक योजनाएं शुरू की है।
संशोधन
प्राथमिक शिक्षा को सर्वव्यापी बनाने के लिए सर्व शिक्षा अभियान को भारत के प्रमुख कार्यक्रम के रूप में लागू किया गया था, जिसमें शिक्षा के लिए सर्वव्याप्त, सुलभ पहुँच व उसका प्रतिधारण, शिक्षा में लिंग व सामाजिक ऊँच-नीच आधारित अंतर को पाटने और बच्चों के अधिगमन स्तर में वृद्धि के लिए सर्वव्याप्त पहुंच प्रदान करने के लिए आदेशित किया गया है।
अन्य बातों के साथ-साथ मध्यवर्ती कोशिशों के रूप में अन्य योजनाएं भी शामिल थीं, जिसमें नए स्कूलों का निर्माण और विकास, अतिरिक्त शिक्षकों कि नियुक्ति, सेवारत शिक्षकों को नियमित प्रशिक्षण, अधिगम परिणामों में सुधार सुनिश्चित करने के लिए अन्य शैक्षणिक सहायता सामाग्री, जैसे मुफ्त पाठ्यपुस्तकें, यूनिफ़ार्म आदि। हालांकि, योजना का कार्यान्वयन दुर्भाग्यवश बहुत धीमी गति से किया गया, परिणामतः प्रवेश दर में तेजी नहीं रही। 2016 में एनसीईआरटी द्वारा किए गए एक सर्वे के अनुसार, अब तक कक्षा 3, 5 और 8 के लिए समग्र अधिगम में मामूली सुधार हुआ है।
प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के लिए लोकप्रिय नीति के कुछ अन्य मध्यवर्ती सुधारों के रूप में ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’, ‘ई-पाठशाला’, ‘राष्ट्रीय अविष्कार अभियान’, ‘स्वयं’ आदि कार्यक्रम है।
यह अनंतिम हो.
जबकि ‘नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम 2009’ 6 से 14 वर्ष की आयु वर्ग के सभी बच्चों को स्कूलों में मुफ्त और अनिवार्य प्रवेश, उपस्थिति और प्राथमिक शिक्षा को पूरा करने के मौलिक अधिकार को एक कानूनी स्वरूप प्रदान करता है, फिर भी नामांकन करने वाले और अपनी प्राथमिक स्कूली शिक्षा पूरी करने वाले बच्चों के बीच एक संख्यात्मक अंतर है।
‘प्रथम’ की रिपोर्ट-‘शिक्षा की वार्षिक स्थिति 2013’ (एसर सेंटर के संरक्षण में) के अनुसार, कक्षा 3 के करीब 78% और कक्षा 5 के लगभग 50% बच्चे कक्षा 2 की पाठ्यपुस्तक नहीं पढ़ सकते हैं। अंकगणित भी चिंता का विषय है, क्योंकि कक्षा 5 के मात्र 26% छात्र विभाजन (भाग) संबंधी सवालों को हल करने का प्रयास कर सकते हैं।
आज की आवश्यकताएँ
2011 में, शिक्षा के अधिकार के एक आदेशानुसार सभी निजी स्कूलों को सामाजिक रूप से वंचित और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के बच्चों के लिए 25% सीटें आरक्षित करनी पड़ी। इस प्रावधान ने बेहतर भारत के लिए सामाजिक समावेश को प्रोत्साहित किया होगा, लेकिन अधिनियम के लागू होने से लेकर अब तक केवल 8% स्कूलों ने आरटीई का अनुपालन किया गया है।
यहाँ एक गंभीर हस्तक्षेप की आवश्यकता है, जिसके बिना, ऐसे बच्चों के पास, किसी भी कारण से, शिक्षा के अगले चरण में उचित ढंग से पहुँचने का कोई अवसर नहीं है। राज्य और केंद्र सरकार के तहत सभी स्कूल इस चुनौती का सामना कर रही है।
दूसरी ओर, शिक्षक शिक्षा और कड़ा प्रशिक्षण भी समय की आवश्यकता है। उदाहरण के लिए, हैदराबाद में स्कूल शिक्षा आयुक्त ने सरकारी स्कूली शिक्षकों को व्यावहारिक रूप से गणित, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान जैसे विषयों में अपने शिक्षण कौशल में सुधार के लिए प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए इसे एक मुद्दा बना लिया है। राज्य सरकारें ऐसे कार्यक्रम शुरू करने के लिए स्वतंत्र हैं और वे अपने जनबल (कार्यबल) को समय पर उन्नत प्रशिक्षण और शिक्षा प्रदान करने के लिए शिक्षा मंत्रालय की मदद ले सकती हैं। दिल्ली सरकार, जिसने शिक्षित पेशेवरों को प्राथमिक स्तर पर बच्चों के साथ आने का आग्रह किया, ताकि बच्चे अपनी पाठ्यपुस्तकों को सफलतापूर्वक पढ़ सके, प्रशिक्षित स्नातक शिक्षकों पर 5 सप्ताह के प्रशिक्षण में नई रास्ते खोज रही होगी, लेकिन प्राथमिक शिक्षकों का प्रशिक्षण एक मुश्किल सा सपना बना हुआ है।