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- वैल्यू का ध्यान रखें तो बोर्डिंग स्कूल कभी फेल नहीं होगाः डॉ. अनुज एस. सिंह
बोर्डिंग स्कूल आज के समय की मांग है। माता-पिता को लगता है कि बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए उन्हें बोर्डिंग स्कूल में डाल देना चाहिए, वहीं बच्चे जितना ज्यादा हो सके, बोर्डिंग स्कूल से दूर भागने की फिराक में रहते हैं। हालांकि, एकल परिवारों की बढ़ती संख्या बच्चों के लिए बोर्डिंग स्कूल जाने को ही एकमात्र रास्ता बना देते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण है, एकल परिवार। उस पर माता-पिता, दोनों का कामकाजी होना। ऐसे में एक बड़ा सवाल यह है कि आखिर बोर्डिंग स्कूल खोलने के लिए कौन-कौन सी बातें ध्यान में रखने की जरूरत है? क्या बोर्डिंग स्कूल आज के समय की सबसे बड़ी जरूरत बन चुकी है... जैसे कई सवालों पर देहरादून के प्रकृति वैली स्कूल के प्राध्यापक डॉ. अनुज एस. सिंह ने अपॉरच्युनिटी इंडिया की वरिष्ठ संवाददाता सुषमाश्री से क्या कहा, आइए जानते हैं...
ओआई: बोर्डिंग स्कूल खोलने के लिए क्या करना होगा? बोर्डिंग स्कूल खोलने वालों को किस तरह की परेशानियां आती हैं? उनसे कैसे निपट सकते हैं?
डॉ. सिंह: परेशानियां आज के समय में केवल मार्केटिंग की आती है। यदि आपके पास पैसे हैं तो आप जमीन खरीद सकते हैं, एक बेहतरीन स्ट्रक्चर तैयार कर सकते हैं, कई बार आप अच्छे शिक्षकों को भी अपने साथ जोड़ सकते हैं, लेकिन अगर आपके बेसिक्स (आपका मूल तत्व) और आपके इथोज (आपका स्वभाव या चरित्र) ही सही नहीं हैं तो असली परेशानी वहां आएगी। पहली समस्या होती है- अच्छे लोगों का चयन और दूसरी- उन्हें अपने साथ जोड़ना और लंबे समय तक जोड़े रख पाना।
अगली समस्या आती है कि जिस उद्योगपति ने इतना पैसा लगाकर एक प्रोजेक्ट शुरू किया है, वह पहले ही दिन से लाभ कमाना चाहता है। एक शिक्षक के तौर पर 35 वर्षों के अपने करियर में मैंने यही जाना है कि कोई भी स्कूल आपको 15 वर्षों बाद रिटर्न देना शुरू करेगा। तो क्या आपमें इतना धैर्य है कि करोड़ों रुपये लगाने के बाद इतने लंबे समय तक आप उसी पैशन और गर्मजोशी के साथ बिना किसी लाभ के भी काम कर पाएंगे? और उसी उत्साह के साथ इतने साल लंबे समय तक इंतजार कर सकेंगे? यकीन मानिए, जिसने ऐसा कर लिया, न तो उसकी कई पीढ़ियां कभी फेल होंगी और न ही उसका स्कूल।
आज जिस दून स्कूल की हम बात करते हैं कि वहां राजीव गांधी, सिंधिया जैसे लोग पढ़े हैं, उसमें 1960 तक पंखे नहीं होते थे। उस वक्त दून स्कूल आज के मुकाबले कहीं बेहतर काम कर रहा था। तब उसकी फीस एक लाख रुपये थी और आज 35 लाख रुपये है। आज सुविधाएं जितनी ज्यादा हो गई हैं, बच्चों के लिए वह उतना ही नुकसानदेह हो गया है। आज आपके पास पैसे हैं तो अपने बच्चों के लिए आप एक सीट खरीद सकते हैं। झारखंड, पूर्वोत्तर यूपी, उड़ीसा, बंगाल, ये अलग-अलग राज्य हैं, लेकिन इनकी संस्कृति एक-सी है। वहां के बच्चों के माता-पिता को फैन्सी नहीं बल्कि वैल्यू ज्यादा चाहिए। वहां बोर्डिंग स्कूल खोलने वाला उसे फैन्सी भले ही न रखे, लेकिन अगर वैल्यू रखेगा तो उसका स्कूल बम्पर चलेगा। बड़े स्कूल जो 15 वर्षों में नहीं कर पाते, करोड़ों रुपये की मार्केटिंग में नहीं कर पाते, वहां वह महज दो वर्षों में कर लेगा, उसे लंबे इंतजार की जरूरत नहीं रह जाएगी।
ओआई: बोर्डिंग स्कूल खोलने के नियम-कानून क्या हैं?
डॉ. सिंह: जब आप बोर्डिंग स्कूल के लिए रजिस्ट्रेेशन कराएंगे तब आपको सबसे पहले यह बताना पड़ेगा कि आप सीबीएसई या आईसीएसई, दोनों में से किस बोर्ड के साथ जाएंगे? आपका डे-स्कूल है, डे-बोर्डिंग है, फुल बोर्डिंग स्कूल है, को-एड बोर्डिंग है, सिर्फ ब्वॉयज बोर्डिंग स्कूल है या सिर्फ गर्ल्स बोर्डिंग है, तब आपको यह बताना होगा। यह पेपर वर्क है, लेकिन जब आप बोर्डिंग स्कूल खोलते हैं तो बच्चा वहां 24 घंटे रहता है, डे स्कूल में आपको केवल क्लासरूम्स, लैब्स और एक खेल का मैदान देना है, लेकिन बोर्डिंग स्कूल की जरूरतें अलग हैं। वहां पर इन्फर्मरी चाहिए, जहां बीमार पड़ने पर बच्चा जा सके, आपको रेजिडेंट डॉक्टर्स चाहिए, नर्स चाहिए, स्कूल के लिए एम्बुलेंस चाहिए, डाइनिंग हॉल चाहिए, किचन चाहिए। बच्चों के पढ़ने की क्लास अलग और सोने के कमरे, डॉरमेट्रीज अलग चाहिए। बच्चों के एंटरटेनमेंट के लिए आपको कॉमन रूम रखना होगा। लॉन्ड्री की सुविधा रखनी होगी।
अब आप एक्टिविटीज कराएंगे तो इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि आप वहां क्या कराएंगे? मान लीजिए कि आप कोई बड़ी एक्टिविटी कराना चाहते हैं, जैसे कि हॉर्स राइडिंग, तो आपको सिर्फ घोड़े नहीं रखने हैं, घुड़सवारी की कोचिंग कर सके, ऐसा कोच भी रखना है। आपने स्विमिंग पूल बना दिया तो वह पर्याप्त नहीं है। पूल में पानी डाल दिया तब भी पर्याप्त नहीं है, आपको वाटर प्यूरिफायर मशीन की जरूरत पड़ेगी, जिसकी कीमत डेढ़ करोड़ रुपये तक आती है, जिसे चलाने का खर्च पांच करोड़ रुपये महीने का आता है। इसके बाद आपको स्विमिंग कोर्ट्स भी चाहिए। यानी यह बढ़ता ही जाता है। असल में यह मिलियन डॉलर इन्वेस्टमेंट की चीज है। यही वजह है कि जो इतना पैसा लगाते हैं, उन्हें इसका रिटर्न भी जल्दी चाहिए होता है यानी निवेश के साथ धैर्य होना जरूरी है।
ओआई: एक तरफ हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे बोर्डिंग स्कूल जाएं और संस्कारी बनें, वहीं दूसरी ओर हम चाहते हैं कि वे एआई और चैटजीपीटी जैसी नई और उच्च तकनीकों के साथ अपडेटेड रहें। क्या इस तरह से हम उनके लिए कन्फ्यूजन पैदा नहीं कर रहे? उन्हें क्या बनना है, इस सवाल को उनके लिए और ज्यादा गंभीर नहीं बना रहे हम?
डॉ. सिंह: बिल्कुल बना रहे हैं और यह कन्फ्यूजन बच्चों में नहीं है, पैरेंट्स में है। पैरेंट्स के दिमाग में यह बात घर कर गई है कि जितना फैन्सी प्रोडक्ट वे अपने बच्चों को देंगे, उनका बच्चा जीवन में उतना ही अच्छा करेगा। जहां तक बच्चों के आत्मनिर्भर बनने का सवाल है तो मैं यह बता दूं कि बोर्डिंग स्कूल बच्चों को आत्मनिर्भर जरूर बनाता है, लेकिन उन्हें संस्कारी बनाने की जिम्मेदारी कोई बोर्डिंग स्कूल नहीं लेगा। यह पूरी तरह से बच्चों के परिवार के माहौल पर निर्भर करता है। मान लीजिए, अपने बच्चे को आप सातवीं कक्षा में बोर्डिंग स्कूल भेजते हैं, जो अपनी जिंदगी के 12 वर्ष पहले अपने परिवार में बिताकर आया है। अब तक वह उस परिवार की सोच के साथ चला है और उसने एक खास तरह के माहौल को ही देखा है, फिर रातोंरात उसकी मानसिकता और सोच को बदलने वाली आज कौन सी तकनीक उसके सामने लाई जा सकती है भला! ऐसा कोई तरीका नहीं है, जो किसी भी बच्चे को रातोंरात संस्कारी बना दे। यह समय मांगता है। अच्छा माहौल मांगता है।
ओआई: बच्चों को सोशल और लाइफ स्किल्स सिखाने के लिए किस तरह के स्कूलों में भेजने की जरूरत है?
डॉ. सिंह: बोर्डिंग स्कूल में बच्चा सोशल स्किल ज्यादा सीखता है। सोशल स्किल्स सामाजिक क्षमता यानी एडजस्टमेंट (किसी भी परिस्थिति में खुद को ढाल लेना), एक रूटीन फॉलो करना, डिफरेंसेज को एक्सेप्ट करना (खुद से अलग सोच वाले को भी शांति से सुनने की क्षमता विकसित करना), जैसे सोशल स्किल्स बच्चे बोर्डिंग स्कूल में सीखते हैं, जो कि डे-स्कूल में उनके लिए सीख पाना मुश्किल होता है। लेकिन लाइफ स्किल, बच्चा घर से सीखना शुरू करता है और वह चाहे किसी भी स्कूल में पढ़े, वह अपने घर पर सीखता है, रिश्तेदारों में सीखता है, आस-पड़ोस के माहौल से सीखता है, और उसकी रोजमर्रा की जिंदगी में जो संघर्ष आते हैं, उससे सीखता है। बोर्डिंग स्कूल या डे-स्कूल से इसका कोई लेना-देना नहीं है। आज के समय में माता और पिता ही किसी भी बच्चे के लिए पहले रोल मॉडल होते हैं।
ओआई: क्या आज फिर से वह समय आ गया है कि बच्चों को आज के गुरुकुल या कहें कि बोर्डिंग स्कूल में भेजा जाए?
डॉ. सिंह: गुरुकुल का कॉन्सेप्ट अब कहीं नहीं है, चाहे कोई अपने स्कूल का नाम गुरुकुल ही क्यों न रख लें! बोर्डिंग स्कूल्स को भी आप गुरुकुल नहीं कह सकते। बच्चे को बोर्डिंग स्कूल में भेजने से पहले माता-पिता कुछ चार बातों पर ज्यादा ध्यान देते हैं। पहला कि स्कूल कितने फैन्सी हैं? कितना बड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर है? क्या-क्या एक्टिविटीज हैं? क्या फेसिलिटीज हैं? गुरुकुल में तो सबकुछ बहुत ही साधारण स्तर का होता था और होना भी चाहिए था क्योंकि उन स्कूलों में जहां कुछ भी नहीं होता था, तब वहां बच्चा लाइफ स्किल सीखता था। आज तो बच्चे के पास 25 तरह के खाने के ऑप्शन हैं। किताबों की जगह उसे टैबलेट दे दिया गया है। बच्चा इस सुविधाजनक जिंदगी का ही भुगतान करने को मजबूर है। अगर आप बोर्डिंग स्कूल को गुरुकुल के साथ जोड़ेंगी तो आपको दुख होगा।
ओआई: अगर हम टियर टू और टियर थ्री शहरों की बात करें तो बोर्डिंग स्कूल की वहां पहुंच कितनी है?
डॉ. सिंह: हमारे देश में जितने बोर्डिंग स्कूल हैं, उतने तो डे-स्कूल भी नहीं खुल सकते। पहुंच की बात करें तो मैं कहना चाहुंगा कि गांव में आज भी स्कूल नहीं हैं जबकि भारत की 65 प्रतिशत जनसंख्या आज भी गांव में रहती है। मैं ऐसे कई इलाकों को जानता हूं, जहां 40 किलोमीटर के रेडियस में एक भी स्कूल नहीं है। मैं उत्तराखंड के ऐसे इलाकों को भी जानता हूं, जहां एक बच्चे को स्कूल पहुंचने के लिए 11 किलोमीटर पैदल चलकर जाना पड़ता है। एक तो यह समस्या है और दूसरी यह है कि स्कूल चाहे बोर्डिंग हो या फिर डे, बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। जिस भी परिवार में संस्कार और शिक्षा की मौलिकता रहती है, वहां अच्छी शिक्षा भी होगी। शिक्षा का मतलब यहां एक तो पुस्तक से है और दूसरे सीख से। इतने बड़े-बड़े स्कूल खुल रहे हैं कि उनमें एक्टिविटीज, फेसिलिटीज, इंफ्रास्ट्रक्चर और ब्यूटी पर ज्यादा ध्यान है, लेकिन पेडालॉजी (शिक्षण शास्त्र) पर, संस्कारों में, अच्छी शिक्षा पर किसी का ध्यान नहीं है। तो मेरा मानना है कि ऐसे बोर्डिंग स्कूल फैन्सी दिख सकते हैं, फैन्सी प्रॉडक्ट बना सकते हैं, या बनाने का वादा कर सकते हैं, लेकिन उन बच्चों के पैर जमीन पर नहीं होते।