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- जीवनशैली में बदलाव के साथ आयुर्वेद के उपयोग में किस तरह बदलाव आ रहा है
90 के दशक में और 21वीं सदी के आरंभ में ग्राहक आयातित उत्पादों के दीवाने थे। हमें जापानी इलेक्ट्रोनिक शार्पनर्स और रिमोट कंट्रोल वाली चीनी कारों का उपहार दिया गया था - किसी भी भारतीय चीज को द्वितीय स्तर का माना जाता था। यह नहीं कहा जा सकता आयुर्वेद का महत्व खत्म हो गया था, इसके बजाय आधुनिक उपभोक्ताओं के बीच में इसकी लोकप्रियता कुछ हद तक कम हो गई थी। आयुर्वेद को ऐसी चीज के रूप में देखा जाता था, जिसका उपयोग दादा और दादी करने को कहते थे।
उसी समय, योग पुनरुत्थान के दौर से गुजर रहा था। पश्चिम ने इस प्राचीन भारतीय सृजन को पूरी तरह से रिब्रांड कर दिया था। योग पैंट्स, योग व्यायामशाला, योग चटाईयों के साथ आधुनिक उपभोक्ताओं को योग बहुत रुचिकर और अच्छा लग रहा है। यह कुछ इस ऐसा हो गया है, जिससे आप जुड़ाव महसूस कर सकते हैं। धीरे-धीरे योग वैश्विक सनसनी बन गया और अमरीका में 27 बिलियन डॉलर का उद्योग हो गया। यद्यपि इसमें जो कमी थी, वह थी भारतीय पहचान की। योग लोकप्रिय था लेकिन यह भारतीय नहीं था - यह वैश्विक हो गया था और इन सब में इसकी भारतीय पहचान कहीं खो गई थी।
इस अवधि के दौरान (90 का दशक और 21वीं सदी की शुरूआत) पश्चिम में जैविक क्रांति आई। पश्चिमी उपभोक्ता अपने दैनिक सेवन में रासायनिक वस्तुओं से थक गया था, क्योंकि उन्हें कृत्रिम चीजों का सेवन करने के नकारात्मक प्रभावों के बारे में समझ में आने लगा था। फास्ट फुड के लिए मशहूर स्थानों ने भी बड़े जैविक उत्पादों के ब्रांड्स बनाए। उपभोक्ता अपने द्वारा खाई जाने वाली चीजों के बारे में ज्यादा से ज्यादा शिक्षित होने लगे और साबुत आहार अब कोई नई चीज़ नहीं थी - यह जीने का तरीका हो गया।
यद्यपि 21वीं सदी के उत्तरार्ध के भारत में आयुर्वेद और प्राकृतिक चीज़ों के संबंध में तेजी से बदलाव हुआ है। शहरी भारत अपने स्वास्थ्य और तंदुरूस्ती के विषय में काफी ज्यादा जागरूक हो गया है। 15 साल पहले स्वस्थ जीवन और स्वस्थ भोजन की दिशा में जो क्रांति हमने पश्चिम में देखी थी, वही अब भारत में भी आ गई है। इस बदलाव के साथ ही प्राकृतिक उत्पादों में नवीकृत दिलचस्पी जागी है, क्योंकि भारतीयों ने भी पश्चिम का अनुसरण किया है और रासायनिक चीज़ों और एलोपैथिक दवाईयों के नकारात्मक प्रभावों को समझ लिया है।
जीवनशैली में यह बदलाव को नई भारतीय सरकार के साथ जोड़ा गया है, जो पारंपरिक रूप से जो कुछ भी ‘भारतीय’ है, उसे वापस लौटाने में और सुरक्षित रखने में बहुत सक्रिय है। 2014 में जब नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद संभाला तब भारतीय पहचान में गर्व की एक नई भावना आई। आज, शहरी भारतीय अपने समकक्षों से बदल गए हैं। हम विशिष्ट रूप से भारतीय उत्पादों का उपभोग करने में प्रसन्नता महसूस करते हैं और सरकार की ओर से भी इस बात पर अतिरिक्त बल भी दिया जा रहा है। सरकार ने आयुष मंत्रालय का गठन किया है और सामान्य लोगों के बीच परंपरागत रूप से जो कुछ भी भारतीय है, उसको बढ़ावा देना जारी रखेगी।
जीवनशैली में बदलाव और सरकार में बदलाव के आर्थिक परिदृश्य को देखते हुए भारत कुछ हद तक आयुर्वेद के पुनरुत्थान को अनुभव कर रहा है। एक विज्ञान जिसे आधुनिक उपभोक्ता ने करीब-करीब भूला ही दिया था, अब अत्यंत लोकप्रिय है। आयुर्वेद कंपनियाँ की अब इतनी ज्यादा मांग है कि वह वैश्विक एफ.एम.सी.जी. दिग्गजों की रातों की नींदे उड़ा रही हैं। इस विज्ञान की समाज में प्रासंगिकता बढ़ी है, क्योंकि इसे रसायनों के विकल्प और ऐसी चीज़ के रूप में देखा जा रहा है, जो प्रकृति की प्रचुरता से बिना किसी पार्श्व प्रभाव के मुफ्त समाधान देता है।
यद्यपि आयुर्वेदिक उत्पादों तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं, इस विज्ञान की क्षमता अभी भी अप्रयुक्त है। 60 वर्ष से ऊपर के भारतीय नागरिकों की तुलना में शहरी उपभोक्ताओं के पास इस विज्ञान के बारे में सीमित ज्ञान है। 60 वर्ष के ऊपर के लोगों को संभवतः यह पता होगा कि आयुर्वेद केश तेलों में भृंगराज बहुत ही महत्वपूर्ण घटक है, लेकिन 20 वर्ष से 30 वर्ष के बीच के नौजवानों को शायद इस बारे में कुछ भी पता नहीं होगा। इस प्रकार से, आयुर्वेद उत्पादों के संदर्भ में जो सबसे ज्यादा अपनाया गया है वह मुख्य रूप से प्राकृतिक खाद्य पदार्थ और सौंदर्य प्रसाधन है। आयुर्वेद दवा को अभी भी बहुत आगे जाना है, जब तक कि इसे एलोपैथी के विशुद्ध विकल्प के रूप में देखा न जा सके और यह केवल उपभोक्ता को शिक्षित करने से हो सकता है। आधुनिक उपभोक्ताओं को इस विज्ञान के बारे में इस प्रकार से बताया जाना चाहिए, जो उन्हें दिलचस्प और सुलभ लगे। किसी कारण से, बड़ी संख्या में आयुर्वेद उत्पादों के ब्रांड्स अभी-भी अतीत से चिपके हुए हैं और नए उपभोक्ताओं से बात किए बिना आयुर्वेद को जीने का तरीका बनाना काफी मुश्किल होगा।
सबसे ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि आधुनिक जीवन की समस्याओं को सामना करने के लिए आयुर्वेद के पास उपयोगी उत्पाद है। आधुनिक उपभोक्ता खराब भोजन, नींद की कमी और तनाव जैसे जीवनशैली के मुद्दों से पीड़ित है। शहरी वातावरण और प्रदूषण ने खांसी, जुकाम और दमे जैसी स्थितियों को आधुनिक भारतीयों के लिए स्थायी मुद्दा बना दिया है। यद्यपि आयुर्वेद के पास इन नये युग की समस्याओं का सामना करने के लिए समाधान है। चाहे वह दैनिक शक्तिवर्धक, ऊर्जा या प्रतिरक्षा टॉनिक हो या दमे के लिए दीर्घकालिक समाधान हो, आयुर्वेद के पास सारे उत्तर हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह विज्ञान लक्षण के बजाय जड़ से बीमारियों का इलाज करता है। इसलिए, जब तक उपभोक्ता आयुर्वेद के लाभों और कामकाम के तंत्र के बारे में अधिक जागरूक रहेंगे, तब तक यह आधुनिक जीवन के अंतहीन मुद्दों का समाधान दे सकता है।
संक्षेप में कहा जाए तो आयुर्वेद, भारत में पिछले 5-7 वर्षों में कुछ हद तक पुररुत्थान के दौर से गुजरा है। भारत में स्वस्थ जीवन जीने पर अधिक ध्यान केंद्रित करने और बदलती जीवनशैली के साथ यह विज्ञान बहुत ज्यादा लोकप्रिय हो गया है। शहरी भारतीयों की जीवनशैली में बदलाव की वजह से यह विज्ञान लोकप्रिय हुआ है, लेकिन इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि जहाँ तक संभावनाओं की बात है, तो आयुर्वेद केवल सतह पर काम कर रहा है। इस विज्ञान की जानकारी को सही तरीके से संचारित करने की आवश्यकता है ताकि आधुनिक उपभोक्ता आयुर्वेदिक सौंदर्य प्रसाधनों और जैविक खाद्य पदार्थ के उपयोग से आगे बढ़े। और, हम सिर्फ भारत के बारे में बात कर रहे हैं। अगर योग पुनरुत्थान के दौर से गुजरा है और वैश्विक सनसनी बन गया है, तो आयुर्वेद क्यों नहीं!
इस लेख को डॉ. वैद्य की मुख्य कार्यपालन अधिकारी अर्जुन वैद्य ने लिखा है