व्यवसाय विचार

डिजिटल ट्रांसफॉरमेशन: क्या शिक्षा के कारोबारी मॉडल में आधारभूत बदलाव आए हैं...

Opportunity India Desk
Opportunity India Desk Feb 23, 2023 - 13 min read
डिजिटल ट्रांसफॉरमेशन: क्या शिक्षा के कारोबारी मॉडल में आधारभूत बदलाव आए हैं... image
बीते दिनों 'अपॉर्च्युनिटी इंडिया' ने बेंगलुरु में 'एजुकेशन इनोवेशन समिट 2023' का आयोजन किया। कार्यक्रम में 'डिजिटल ट्रांसफॉरमेशन: क्या शिक्षा के कारोबारी मॉडल में आधारभूत बदलाव आए हैं' विषय पर चर्चा की गई।

कोरोना काल ने हमारे जीवन के हर क्षेत्र को बदल दिया है। शिक्षा जगत भी इससे अछूता नहीं रह गया है। कोरोना काल के दौरान शहर ही नहीं, गांवों में भी शिक्षा के तरीकों में काफी बदलाव देखने को मिले हैं। वैश्विक स्तर पर बात करें तो कई कंपनियों ने शिक्षा के तरीकों में तकनीकी बदलाव किए हैं। ये बदलाव बताते हैं कि दुनिया में कोरोना काल के बाद तकनीक में कितना और किस तरह का विकास हुआ है? पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा क्षेत्र में तकनीक के माध्यम से बड़ा बदलाव लाने वाले दिग्गजों ने इसी महीने की शुरुआत में बेंगलुरु में आयोजित एजुकेशन इनोवेशन एंड इन्वेस्टमेंट समिट 2023 के दौरान इस विषय पर गंभीरता से चर्चा की। चर्चा में टीसीएस की हेड (इंडिया जियो एजुकेशन बिजनेस यूनिट) कामाख्या विक्रम, सोडेक्सो बेनिफिट्स एंड रिवार्ड्स के सीईओ अनीश सरकार और विजक्लब लर्निंग के संस्थापक और सीईओ अमित बंसल शामिल हुए। शिक्षा में तकनीक के प्रयोग को लेकर इन्होंने कई जानकारियां दीं।

कामाख्या विक्रम के अनुसार, कोविड के बाद यह विषय काफी हद तक प्रासंगिक हो गया है। अगर हम शिक्षा के क्षेत्र में तकनीक को अपनाने की बात करें तो बीते कई वर्षों में इस क्षेत्र में सबसे कम विकास देखने को मिला है। 2050 तक वैश्विक तौर पर 200 करोड़ छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे होंगे। शैक्षणिक संस्थानों, विद्यालयों, कॉरपोरेट्स वगैरह, सभी के लिए यह सही समय है। उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में तकनीक को जोड़ने के लिए आगे आना चाहिए, खासकर जब बात सीखने की आती है। इस मामले में बजट से जुड़े मुद्दे भी आते हैं। इसके अलावा तकनीकी रूप से विकसित होने, आगे बढ़ने या कहें कि उसमें बदलाव अपनाने को लेकर भी लोग कुछ सकुचाते हैं। ऐसे में इस क्षेत्र में बीते कई वर्षों से काम कर रही कंपनी 'टीसीएस' ने अपना प्लेटफार्म बनाया है। शिक्षा प्रबंधन प्रणाली से लेकर परिसर प्रबंधन समाधान तक, यह कंपनी इन सभी क्षेत्रों से जुड़ी सेवाएं मुहैया करवा रही है। जहां तक ऑनलाइन मूल्यांकन और अंक देने की बात है तो भारत और देश के बाहर, टीसीएस बड़ी संख्या में ये सारे काम कर रही है।

रचनात्मक तरीके से डिजिटलाइजेशन को शुरुआत से ही अपनाने और इसे विकसित करने की जरूरत को हमने महसूस किया है। ऐसे में हमने विश्वविद्यालयों को 'भविष्य के विश्वविद्यालयों' के तौर पर बदलने की कोशिश की है। इसका मतलब है कि नए बुनियादी ढांचे, नए नेटवर्क और नई सेवाओं की जरूरत है। जरूरत छात्रों को व्यस्त करने की है क्योंकि छात्र किसी भी तरह से आज निजी पसंद के विषयों की तलाश में रहते हैं और यह सब तभी संभव है, जब आप नए-नए तकनीक अपनाने को तैयार हों। बता दें कि टीसीएस डिजिटल यूनिवर्सिटी मॉडल भी ला रही है, जिसमें ऑनलाइन सर्टिफिकेशन प्रोग्राम, ऑनलाइन डिग्री प्रोग्राम शामिल हैं, ताकि जीवनपर्यंत सीखने का काम किया जा सके।

शिक्षित बेरोजगार युवाओं की संख्या में आएगी कमी

कामाख्या कहती हैं, हमारे यहां कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बावजूद नौकरी नहीं मिल पाती। यही वजह है कि 80 प्रतिशत शिक्षित युवा आज भी बेरोज़गार हैं। देखा जाए तो हमारी इंडस्ट्री में काफी कमियां हैं। अलग-अलग संस्थानों के साथ औद्योगिक साझेदारी करके टीसीएस इस क्षेत्र में मौजूद कमियों को दूर करने का प्रयास कर रही है। यह देखने के लिए कि सीखने की कला में हम किस तरह से बदलाव ला सकते हैं, छात्रों के किताबी ज्ञान, कक्षा में लिए गए ज्ञान और जो वे इस दुनिया से सीखते हैं, उन सभी को मिलाकर असल में उसने क्या-क्या सीखा, समझा और जाना, इसे हम जांचने की कोशिश करते हैं। हमें उम्मीद है कि इससे शिक्षित बेरोजगार युवाओं की संख्या में अवश्य कमी आएगी।

सोडेक्सो बेनेफिट्स एंड रिवॉर्ड्स सर्विसेज के सीईओ, अनीश सरकार बताते हैं, भारत में सोडेक्सो पिछले 25 वर्षों से है। कई कंपनियों और कामकाजी वर्ग की पसंद बनने के साथ-साथ हम कुछ स्कूलों और शिक्षा संस्थानों के साथ भी काम कर रहे हैं। हमने कोशिश की है कि सदियों के अपने अनुभवों को स्कूलों और शिक्षा संस्थानों पर केंद्रित करें, ताकि भविष्य के लिए हम उन्हें डिजिटल तकनीकों के साथ काम करने के लिए तैयार कर सकें। एक ओर जहां हम अक्षम छात्रों को मौके देना चाहते हैं, जैसे कि स्कूलों के कामकाज का तरीका सुव्यवस्थित हो, ज्यादा सरल, कुशल और केंद्रित हो, वहीं दूसरी ओर हमारी कोशिश है कि छात्रों को विश्व स्तरीय परिसर का अनुभव हो। जीवन की शुरुआत में ही उन्हें यह मालूम हो कि डिजिटल पेमेंट और डिजिटल साधन का प्रयोग किस तरह से किया जाना चाहिए।

बहुत जल्दी-जल्दी सबकुछ सीखना होगा जरूरी

विजक्लब लर्निंग के फाउंडर एंड सीईओ अमित बंसल की मानें तो हमें अपने आसपास की दुनिया को ध्यान से देखना चाहिए। हमें महसूस होगा कि चीजें काफी हद तक बदल चुकी हैं। जब हम स्कूल जाते थे और जब हमने अपना करियर चुना, उस पर चलते हुए खुद को आगे बढ़ाया और आज जो बच्चे स्कूल जा रहे हैं, जब ये अपना करियर चुनेंगे और आगे बढ़ेंगे, निश्चित तौर पर तब तक, सबकुछ हमारी जिंदगी से बिल्कुल अलग होगा। हमें यह समझना होगा कि हमसे पहले की पीढ़ी के लिए एक ही करियर पर 30 साल बिता देना काफी होता था। हमारे समय में यह हर 10-10 साल में बदलने वाला बन गया। आज के नौकरीपेशा लोगों के लिए हर चार से पांच साल में खुद को बदलना जरूरी हो चुका है। इसमें कतई भी संदेह नहीं किया जा सकता कि 15 से 20 साल की उम्र के आज के बच्चे जब अपना करियर बनाएंगे, तब उनके लिए यही समयांतराल महज एक या डेढ़ साल का रह जाएगा। बाजार में बने रहने के लिए और हर नई चीज से खुद को परिचित रखने या बार-बार सीखने के लिए, इसी अंतराल में उनके लिए खुद को बदलते रहना जरूरी होगा। वे यह नहीं कह सकते कि उन्होंने कॉलेज में चार साल बिताकर जो सीखा है, वही काफी है।

आज के समय में लगातार चार साल तक पढ़ाई करके भी आप सबकुछ नहीं सीख सकते। आज हर समय, हर वक्त आपको कुछ न कुछ सीखते रहना होगा। अब जबकि हमारे आसपास का माहौल ही ऐसा होगा, तब बच्चों के लिए सबकुछ बहुत जल्दी सीखना जरूरी तो होगा ही।  आज से ही, जब वे अपने जीवन के शुरुआती दौर में हैं, उन्हें ज्यादा से ज्यादा चीज़ें सीखना होगा क्योंकि तभी वे बाद में यह नहीं कह सकते कि हम नई तकनीक से रूबरू नहीं हैं। देखा जाए तो आज के बच्चों के लिए कुछ भी याद करने के लिए नहीं है, चाहे वह भौतिकी की अवधारणाएं हों या फिर गणित के सूत्र। बच्चों में कौशल विकास की जरूरत है, जो उन्हें तीन गुणा तेजी से कोई भी काम करने में उनकी मदद कर सके। यही वजह है कि हम इस क्षेत्र में आए हैं। यही वजह है कि हम कौशल पर काम करते हैं, जिसकी जरूरत आज के बच्चों को सबसे ज्यादा है।

कौशल को रचनात्मक ढंग से विकसित करने की जरूरत

हम छात्रों के कौशल को आगे बढ़ाने का काम करते हैं, उनके कौशल पर काम करना चाहते हैं ताकि वे खुद को आने वाले समय या कहें कि अगले 30 वर्षों तक के लिए पूरी तरह से तैयार कर सकें। और ये कौशल कौन से हैं? बड़े पैमाने पर एक बड़ी सी बाल्टी, जिसे उच्च क्रम सोच कौशल कहते हैं, जिसके अंतर्गत मुश्किल समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने वाला, निर्णय लेने की क्षमता रखने वाला, रचनात्मकता नवाचार, विशेष तरह की सोच, ये साड़ी बातें जिसमें हों। ये वे कौशल हैं, जो छात्रों को किसी भी कार्यक्षेत्र से बाहर निकलकर उस समस्या का समाधान करने के योग्य बनाती हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता कि इन कौशलों का प्रयोग वे भौतिकी में कर रहे हैं या फिर गणित में या कानून या कारोबार में या फिर किसी भी अन्य विषय में। इन सारे कौशलों को रचनात्मक ढंग से विकसित करने की जरूरत है।

भारत में स्कूल काफी हद तक केवल अपने पाठ्यक्रम पर निर्भर हैं। चूंकि स्कूल केवल पाठ्यक्रम पर ही केंद्रित रहे हैं, यही वजह है कि कौशल पर काम करने वाले हम सामने आए हैं, जो आज के बच्चों के लिए भविष्य में आगे बढ़ने हेतु जरूरी हैं। हमने हजारों स्कूलों और लाखों बच्चों के साथ काम किया है। इस बात का ध्यान रखा है कि किसी भी कीमत पर नई पीढ़ी ये कौशल अपने अंदर लाने में पीछे न रह जाए क्योंकि 15 साल बाद वे चाहे कितनी भी कोशिश क्यों न कर लें, लेकिन इन्हें अपने अंदर नहीं डाल पाएंगे। इसके पीछे कारण यह है कि बच्चों की जिंदगी के शुरुआती 15 साल ही होते हैं, जब वे अपने अंदर ऐसी क्षमताओं को आसानी से ग्रहण कर लेते हैं। यह उनकी सोच में, किसी भी काम को पूरा करने के तरीके में और वे किस तरह से निर्णय लेते हैं, इन सब पर आने वाले चार-पांच साल तक, जब वे अपने कॉलेज समय में होंगे, तब प्रयोग में लाएंगे, हालांकि मूल कौशल को पहले ही विकसित कर लेना जरूरी है।

निवेश को लेकर संदेह में हैं स्कूल

कई बार स्कूल खुद में बदलाव लाना चाहते हैं, लेकिन बजट और निवेश को लेकर उलझ जाते हैं तो क्या ऐसे में प्रौद्योगिकी नेतृत्वकर्ताओं या ऐसी कंपनियां किसी तरह से इन स्कूलों की मदद कर सकती हैं? सवाल के जवाब में कामाख्या विक्रम कहती हैं, "निश्चित तौर पर। यदि आप ध्यान से देखें तो पाएंगे कि चीजें काफी बदल चुकी हैं। इसका ढांचा खड़ा करना आज महंगा हो सकता है तो ऐसे में कीमत की बात आ ही जाती है। आज हर किसी के पास खुद का ओवरसीज डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट (ओडीज)/ओवरसीज इन्वेस्टमेंट (ओई) है, अपना मोबाइल डिवाइस है। लेकिन जब बात आती है निवेश और तकनीक की, तो सवाल उठता है कि स्कूल किन बातों से संदेहग्रस्त हैं? जवाब है- पूंजी लागत। यानि किस तरह के निवेश उन्हें करने चाहिए, स्कूलों के लिए क्या खर्च करना चाहिए, इसे लेकर वे चिंतित हैं। ऐसे में हम उन्हें 'कैपेक्स मॉडल' से 'ओपेक्स मॉडल' की ओर ले जा रहे हैं। यानी शुरू-शुरू में स्कूलों को निवेश की जरूरत नहीं है। यह बोझ उनसे लेकर हम प्रति यूजर मॉडल या प्रति छात्र मॉडल पर ले जाते हैं, जो कि उन्हें वह बोझ उठाने में मदद करती है और जिससे उन्हें लगता है कि वे जो भी प्रयोग कर रहे हैं, वह प्रासंगिक है। यह उन्हें अनुकूलनशीलता यानी उनकी आवश्यकता के करीब ले जाती है, जो पहले से कहीं ज्यादा, प्रासंगिक, आसान और उनके बजट में है।"

तकनीक कभी महंगी नहीं होती

कोविड के बाद से चीजें काफी बदल गई हैं। लोगों में तनाव बढ़ गया है। वे पहले से कहीं ज्यादा जल्दबाजी में दिखते हैं। जल्दी-जल्दी हर काम निपटा लेना चाहते हैं। ऐसे में वह सुखद अनुभव का पल कहीं खो गया है, जब आप किसी भी चीज को पाने के अपने सफर पर एक-एक सीढ़ी आगे बढ़ते हैं, और उसकी ख़ुशी से आपके अंदर पनपने वाली भावनाएं आपको अनंत आकाश की सैर करा देती हैं। आज यह सब कहीं नजर नहीं आ रहा। यदि संस्थान चाहते हैं कि उनके छात्र अच्छे परिणाम लेकर आएं, उनका नाम बनाएं, उनका स्कूल एक संस्थान की तरह जाना जाए, वैश्विक तौर पर अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब हो, खासकर जब आज विदेशी संस्थान भी हमारे देश में आ रहे हैं, तो चाहे यह स्कूल हो या फिर कोई संस्थान, कई मुद्दे हैं, जो इस पर प्रभाव डालते हैं, खासकर इस बात पर कि आप उसे किस तरह से चला रहे हैं। जरूरी है कि आप बेहतर तकनीक अपनाएं, ताकि आपके छात्र बेहतर करें, समय से आगे निकल जाएं। पढ़ने और सीखने के तरीके आपके पास इतने बेहतर होने चाहिए कि बड़ी संख्या में आपके छात्र दुनिया में अपना नाम करें ताकि आपके स्कूल या संस्थान का भी नाम बने।

बच्चे बदल गए हैं। उनके पास आज खुद का मोबाइल फ़ोन है। ऐसे में उनके लिए आज सबसे जरूरी है- व्यक्ति केंद्रित शिक्षण। कुछ अलग व खास तरह की सामग्री तैयार करना, जो उन्हें आगे लेकर जा सके। कोई भी तकनीक कभी महंगी नहीं होती। बस यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप उसका सही प्रयोग करें, उसका उपयोग करें और परिचालन गतिविधियों में भी उसका प्रयोग करें। अगर आप इन बातों का ध्यान रखें तो निश्चित तौर पर वह आपके लिए कम कीमत वाला होगा, न कि बार-बार पैसों का व्यय कराने वाला। यानी तकनीक बहुत महंगे नहीं हैं, वे हम सभी के बजट में हैं, स्कूल खुद भी उसका खर्च उठाने में समर्थ हो सकते हैं और इससे खुद को आगे भी बढ़ा सकते हैं।

स्कूल नहीं करवाते कोई भी सर्वेक्षण

पहले जब छात्र शिक्षकों को देखते थे तो उन्हें 'गुरुजी' की तरह सम्मान भाव के साथ देखते थे, लेकिन आज उन्हें कर्मचारी की तरह देखने का प्रचलन शुरू किया जा चुका है। आप इस सोच को और बदलने के लिए क्या कर रहे हैं, सवाल के जवाब में अनीश कहते हैं, "शिक्षण संस्थानों को उनके शिक्षकों और कर्मचारियों को ध्यान में रखकर कंपनी की तरह चलाना बेहद जरूरी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि उनका ध्यान छात्रों पर, उनके पाठ्यक्रम और पढ़ाई पर ही होगा और यही होना भी चाहिए, लेकिन इसके बावजूद इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता कि तकनीक के अलावा शिक्षक और कर्मचारी ही किसी भी स्कूल या संस्थान के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं।

आज मुंबई और बेंगलुरू जैसे बड़े शहरों के स्कूलों में भी शिक्षकों और कर्मचारियों को लेकर किसी भी तरह का सर्वेक्षण नहीं किया जाता, जबकि कंपनियों में कर्मचारियों और नौकरियों को लेकर अक्सर वार्षिक सर्वेक्षण किए जाते रहते हैं। इसके अलावा कंपनियां इस बात पर भी ध्यान देती हैं कि उनके कर्मचारियों में कौन खुश है और कौन दुखी? कौन ऐसा है, जो नौकरी छोड़ने की सोच सकता है और क्यों? जरूरत इस बात की है कि इन संस्थानों में भी तकनीक को लाया और अपनाया जाए। काम में और उससे अलग भी, डिजिटल तौर पर कर्मचारियों के काम करने के अनुभवों को सामने लाने के लिए हम लगातार काम कर रहे हैं। यही वजह है कि हम शिक्षकों और कर्मचारियों पर भी ध्यान दे रहे हैं। जो भी कॉरपोरेट कर्मचारियों की तरह काम कर रहे हैं, जिनके पास डिजिटल प्लेटफॉर्म है और जिन्हें अलग-अलग फायदे ऑफर किए जा रहे हैं, उन्हें यह चुनने की छूट हो कि कौन-कौन से मौके उनकी बेहतरी के लिए है, जो उनका संस्थान उन्हें प्रदान करता है? शिक्षकों के डिजिटलाइज होने के अनुभव, या कर्मचारियों का डिजिटलाइज होने के अनुभव पर इन संस्थानों को अपना ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है।"

मंदी का स्कूलों पर सबसे कम प्रभाव

"आप तकनीक पर काफी काम कर रहे हैं। क्या आपको लगता है कि स्कूलों के लिए लचीला शिक्षण मॉडल और कारोबारी मॉडल बहुत जरूरी है? अगर कहीं इसकी कमी है तो क्या हमें इस पर काम करने की जरूरत है?" सवाल के जवाब में अमित बंसल कहते हैं, "अगर हम स्कूलों की बात करें तो एक कारोबारी मॉडल की तर्ज पर आर्थिक मंदी की मार स्कूलों पर सबसे कम पड़ी है, क्योंकि स्कूल सिखाने से कहीं ज्यादा सामाजिक जिम्मेदारियों को उठाने का काम करता है। वह सामाजिक बनावट का एक हिस्सा है, जहां हमारे बच्चे जाते हैं। अगर बात करें मंदी के दौर की, तो यह मानना होगा कि स्कूलों पर इसका सबसे कम असर देखने को मिला है और डिजिटल परिवर्तन का भी। अगर हम बात करें कि स्कूल परिसर से बाहर, चाहे वह ट्यूशन मार्केट हो या फिर अन्य क्षेत्र, हर जगह इसका काफी असर देखने को मिला है। पहले स्कूलों को पता नहीं था कि यह सब काम कैसे होता है, लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज वे यह सब काम खुद ही कर रहे हैं। वे नहीं चाहते कि उनके छात्र बाहर जाएं और किसी और को कारोबार करने का मौका दें। ऐसे में उन्होंने अपने परिसर के अंदर ही सबकुछ मुहैया करवा दिया है ताकि किसी को किसी भी काम के लिए परिसर के बाहर न जाना पड़े, ताकि माता-पिता को भी बच्चों को स्कूल भेजने में किसी तरह की समस्या न हो। यही सब है, जो आज तकनीक आपको करने की छूट दे रहा है, जो पांच से दस साल पहले तक संभव नहीं था।"

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