लर्निंग एजिलिटी यानी सीखने में तत्परता कहें या किसी नई चीज को जल्द सीख लेने का गुण... यह नेतृत्व क्षमता के सबसे महत्वपूर्ण गुणोें में एक है। यह ऐसा गुण है जो गलाकाट प्रतिस्पर्धा के वर्तमान दौर में किसी भी कारोबार में सफल होने के लिए हर कारोबारी या युवा के पास होना ही चाहिए। परिभाषा के स्तर पर देखें तो सीखने की तत्परता में तीन बेहद महत्वपूर्ण हिस्से समाहित हैं। ये तीन हैं - सीखने की इच्छा-शक्ति या संभावनाएं, सीखने की प्रेरणा, और सीखने के माहौल का अनुकूलन यानी जिस भी माहौल में सीखना पड़े, उसी माहौल में रम जाना।
अगर किसी व्यक्ति में ये तीनों गुण हैं, तो वह उपलब्ध सूचनाओं और उसकी जटिलताओं को पूरी तरह समझते हुए किसी भी समस्या का जल्द और उचित निदान तलाश सकता है। सीखने में तत्पर व्यक्तियों की प्रमुख विशेषताओं में एक यह होती है कि वे नई चुनौतियों का सामना करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। इसके साथ ही वे समस्या के समाधान के तौर-तरीकों को लेेकर भी विकल्प खुले रखते हैं। ऐसे व्यक्ति जब भविष्य की चुनौतियों और बाधाओं से पार पाने की अपनी योग्यता सुधारने की शिक्षा ले रहे होते हैं तो वे नए रास्ते खोजने और तौर-तरीकों को सीखने के प्रति भी बेहद उत्सुक होते हैं।
सामान्य रूप से ऐसा माना जाता है कि सीखने की तत्परता ऐसी क्षमता है जिसे किसी को भी सिखाया या पढ़ाया नहीं जा सकता है। हालांकि ऐसी बहुत सी अन्य अवधारणाओं की तरह इसके भी पक्ष और विपक्ष -दोनों ओर लोग खड़े मिलते हैं। बहुत से विशेषज्ञ सीखने की तत्परता के महत्व से सहमत हैं और मानते हैं कि इसे सिखाया-पढ़ाया जा सकता है। वहीं, बहुत से विशेषज्ञ मानते हैं कि यह किसी भी मनुष्य का ऐसा जन्मजात गुण है जो किसी विद्यालय या महाविद्यालय से मिलना मुश्किल है।
बहरहाल, हाल के दिनों में शिक्षण संस्थानों और कंपनियों में इस दिशा में एक खास ट्रेंड बढ़ता दिख रहा है। अब देखा जा रहा है कि ऐसे संस्थान अपने छात्रों और कर्मचारियों में सीखने की तत्परता का गुण जगाने और बढ़ाने के लिए कुछ अतिरिक्त प्रयास करने लगे हैं। अब तो शीर्ष स्तर के शिक्षण संस्थानों और विश्वविद्यालयों में इस विषय पर रिसर्च पेपर भी प्रकाशित होने लगे हैं। ऐसे पेपर के माध्यम से दुनियाभर की कंपनियों और संस्थाओं को बताया जाने लगा है कि अपने कर्मचारियों और छात्रों में सीखनेे की तत्परता बढ़ानेे के तीनों प्रमुख हिस्सों को मजबूती देने के लिए वे किस तरह के कदम उठा सकते हैं।
इस प्रक्रिया का पहला कदम यह है कि सीखने की संभावनाओं की पहचान की जाए और उसे एक कौशल की तरह लिया जाए। किसी भी समस्या या परिस्थिति को देखने का जो पारंपरिक और निश्चित-निर्धारित तरीका है, सबसे पहले उस तरीके को बदलना होगा, उसे ज्यादा खुला और रचनात्मक बनाना होगा। मेरा मानना है कि यही वह महत्वपूर्ण बिंदु है, जहां से बिजनेस स्कूल या प्रबंधन संस्थानों की उल्लेखनीय भूमिका शुरू हो सकती है।
प्रबंधन संस्थान अपने बच्चों को इस दिशा में प्रेरित कर सकते हैं कि वे समस्याओं और परिस्थितियों को देखने का अपना घिसा-पिटा व पारंपरिक तरीका बदलें। शिक्षण संस्थान चाहें तो अपने छात्रों को बता सकते हैं कि वे हर समस्या को अगल-अलग तरीके, अलग-अलग नजरिये से देखें और उनके रचनात्मक व प्रभावी निदान सामने लाएं। किसी भी प्रबंधन संस्थान के छात्र असल में भविष्य के कारोबारी नायक होते हैं जो देश-दुनिया की कंपनियों का नेतृत्व करते हैं।
ऐसे में बेहद जरूरी है कि प्रबंधन संस्थान भविष्य के ऐसे नायकों को इस बात के लिए प्रेरित करें कि वे केस स्टडीज की बार-बार समीक्षा करें, उस पर विचार-विमर्श करें। शिक्षण संस्थान अपने छात्रोें को किसी भी समस्या के पक्ष और विपक्ष में अपनी राय देने, उसकी खामियों की पहचान करने और उसे सुधारने के लिए तार्किक समस्या समाधान नजरिया विकसित करने में मदद कर सकते हैं। जब छात्र समस्याओं को अपने नजरिये से देखेंगे और उसके बारे में अपनी राय व निदान के लिए स्वतंत्र किए जाएंगे, तभी उनमें उन समस्याओं के विशिष्ट समाधान की सोच भी विकसित होगी और वे अपने फैसलों व तरीकों के पक्ष में मजबूती से खड़े रह सकने की कला विकसित कर पाएंगे। प्रबंधन संस्थानों की यह जिम्मेदारी है कि वे विभिन्न प्रशिक्षण माध्यमों से अपने छात्रों के सीखने की संभावनाओं में सुधार करें।
जब किसी छात्र में सीखने की संभावनाएं बढ़ाने के गुण आ जाते हैं, तब सीखने की प्रेरणा देने की बारी आती है। सीखने की प्रेरणा देने का सबसे आसान और प्रभावी तरीका यह है कि इस पूरी प्रक्रिया को खेल के रूप में समझाया जाए। किसी भी बच्चे को कोई बात सिखाने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि उसे काम के लिए शाबाशी मिले और खेल-खेल में सिखाया जाए। उस बच्चे को किसी खास व्यवस्था का हिस्सा बना दिया जाए और उसमें उसे कोई भूमिका दे दी जाए। प्रबंधन संस्थानों को समझना होगा कि जिस भी प्रक्रिया में खेल की तरह अंक मिलते हैं, उसके नियम होते हैं और स्वस्थ स्पर्धा होती है, उसमें बच्चों की स्वाभाविक रुचि बढ़ जाती है और बच्चे उससे बहुत ज्यादा सीखते भी हैं। कुल मिलाकर यह कि प्रबंधन संस्थानों में समस्याओं को सुलझाना सिखाने का तरीका किसी खेल पर आधारित होना चाहिए।
सीखने की प्रेरणा देने का मुख्य मकसद यह है कि छात्रों व भविष्य के नायकों को किसी भी समस्या की गहराई में डूबने और सामने आई चुनौती से जूझकर सफल होने की अनुमति दी जाए। इसके दर्जनों तरीके हैं। कैंपस के अंदर इन-हाउस मीटिंग हो सकती है, दो विश्वविद्यालयों की स्पर्धा कराई जा सकती है, अतिथियों के भाषण हो सकते हैं, नेटवर्किंग कला विकसित की जा सकती है और इस तरह के दर्जनोें कार्यक्रम हो सकते हैं। इससे छात्रों को सही मायनों में उस विश्वविद्यालय परिसर से बाहर निकलकर पेशेेवर जिंदगी की चुनौतियों को समझनेे और उससे पार पाने के तरीके विकसित करने का मौका मिलेगा।
अब तीसरे व आखिरी हिस्से यानी सीखने के माहौल को स्वीकार करने और उसमें रम जाने की बात करते हैं। यह असल में ऐसी क्षमता है जो बेहतर नतीजे हासिल करनेे में बड़ी काम आती है। प्रबंधन संस्थान इसके लिए एक तरीके से छात्रों की मदद कर सकते हैं। वह यह कि सभी छात्रों के बारे में यह पता किया जाए कि वे अपनी योग्यताओं में सुधार के लिए नए कौशल के साथ कितने तैयार हैं, या कि उन्हें नए कौशल की जरूरत है। हालांकि यह काम थका देने वाला हो सकता है। लेकिन इसके लिए संस्थान कई तरीकों का उपयोग कर सकते हैं।
शिक्षण संस्थान के रूप में प्रबंधन संस्थानों की यह जिम्मेदारी है कि वे अपने छात्रों की वर्तमान स्थितियों, क्षमताओं और जरूरतों को समझें। छात्रों को स्वयं में यह समझ विकसित करने का मौका देने की जरूरत है कि सामने आने वाली कोई भी समस्या, गुजर चुकी दो समस्याओं जैसी नहीं है। लिहाजा, जिन तरीकों से उन समस्याओं का समाधान किया गया, हो सकता है कि वे भविष्य की समस्याओं के समाधान में कारगर नहीं हों।
(लेखिका इंस्टीट्यूूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज (आईएमएस), नोएडा की सीनियर डायरेक्टर और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी (एचकेएस) की एलुमनी हैं)