व्यवसाय विचार

भारत में निजी स्कूल

Opportunity India Desk
Opportunity India Desk Sep 15, 2018 - 4 min read
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निजी स्कूलों की आसमान को छू लेने वाली फीस पालकों की जेब में सुराख बना रही है। इसके बावजूद पालक सरकार द्वारा संचालित स्कूलों के मुकाबले निजी स्कूल की शिक्षा पसंद करते हैं।

शिक्षा के लिए जिला सूचना प्रणाली की एक विश्लेषक रिपोर्ट के अनुसार, 2010-11 और 2105-16 के बीच, छात्रों ने भारी संख्या में सरकारी स्कूले छोड़ निजी स्कूलों में प्रवेश लिया है। ये संख्या 1.75 करोड़ होने का अंदाजा लगाया गया है। इस वजह से अपेक्षा से 1.3 करोड़ कम बच्चों ने सरकारी स्कूलों में प्रवेश लिया। क्या ये आंकड़ें हैरान कर देने वाले नहीं हैं?

आम आदमी का सपना

कम आय और मध्यम आय वर्ग एक ही बात के लिए ललकते हैं – अपने बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा और अत्याधुनिक सुविधाएं मुहैया करवाना। हैरानी की बात नहीं है कि उनका ध्यान सरकार-संचालित स्कूलों से हट कर निजी संस्थानों पर केंद्रित हो गया है। कई पालकों को उनकी महंगी फीस के लिए बड़ी मशक्कत से पैसे जुटाने पड़ रहे हैं। पूरे देश के निजी स्कूलों में विवादास्पद रूप से बढ़ाई गई फीस की वजह से कई पालकों का मासिक बजट हिल गया है और इससे उनकी बचत योजनाएं बुरी तरह प्रभावित हुई हैं। इसके बावजूद वे निजी स्कूलों को चुनना ही पसंद कर रहे हैं।

एसोसिएटेड चेम्बर्स ऑफ कॉमर्स ने 2015 में किए एक सर्वेक्षण के मुताबिक पिछ्ले 10 वर्षों में मेट्रो शहरों में निजी स्कूल की फीस दोगुना से ज्यादा हो गई है।

निजी बनाम सरकारी

निजी स्कूल सरकारी स्कूल से बहुत ही अलग होती है। एक तो, वह ट्रस्ट के अधीन निजी व्यक्ति या समूह द्वारा पूर्ण रूप से वित्त-प्रबंधित होती है, जबकि सरकारी स्कूल पूरी तरह सरकार के अधीन होती है और उसे राज्य सरकार से अनुदान मिलता है। निजी स्कूल पूर्णतः निजी ट्रस्ट के प्रशासन में कार्यरत होती है, जबकि सरकारी स्कूल आंशिक रूप से राज्य सरकार द्वारा और आंशिक रूप से उन व्यक्तियों के द्वारा संचालित होती है, जिन्होंने उसकी स्थापना की है।

सरकारी स्कूल्स माध्यमिक स्तर तक अपनी सेवाएं विस्तारित कर सकती हैं, जबकि निजी स्कूल्स प्राथमिक स्तर तक ही सीमित रहने का निर्णय ले सकती हैं। उन्हें माध्यमिक तथा उच्च माध्यमिक स्तर स्थापित करने के लिए विशिष्ट अनुमतियां पाना और आवश्यकताएं पूरी करना जरूरी होता है। एक फर्क ये भी है कि निजी स्कूल्स साधारणतः मेट्रो शहरों या उनके करीबी इलाकों में बसे होते हैं।

निजी स्कूलों में बच्चों को मिलने वाली शिक्षा की गुणवत्ता सरकारी स्कूलों से कहीं अधिक अच्छी होती है। हालांकि हाल ही में आए आंकड़ों के अनुसार सरकारी स्कूलों में उच्च माध्यमिक स्तर पर जाने वाले छात्रों ने (राज्य और केंद्रीय बोर्ड परिक्षाओं में) निजी स्कूलों के छात्रों के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन किया है। उस नजरिए से देखने पर अब ये सरहदबंदी किसी मतलब की नहीं रह जाती है।  

ऐसा होते हुए भी, निजी स्कूल शिक्षा को दी जा रही तरजीह और निजी तथा सरकारी स्कूलों के शैक्षिक परिणाम विभिन्न राज्यों के अनुसार अलग-अलग हैं। उदाहरण के लिए, बिहार और केरल में दिल्ली से बिलकुल ही अलग तस्वीर है, यानि कि वहां निजी स्कूलों की अपेक्षा सरकारी स्कूलों को पसंद किया जाता है।

संसाधन और सुविधाएं

इन्स्टिट्यूट ऑफ एजुकेशन (लंदन) में एजुकेशन एंड इंटरनेशनल डेवलपमेंट की प्राध्यापिका गीता गांधी किंग्डन के मार्च 2017 के अनुसंधान पत्र के अनुसार सरकारी स्कूलों में, जहां शिक्षकों को चीन के मुकाबले औसतन चार गुना तनख्वाह दी जाती है, पांच साल में छात्रों की संख्या 122 से 108 प्रति स्कूल इतनी गिर गई है, जबकि निजी स्कूलों में 202 से बढ़ कर 208 हो गई है।

सरकारी स्कूलों में सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि शिक्षा के संसाधन और सुविधाओं में कमी है। एक जांच के अनुसार 56% पालकों ने ‘शिक्षा के लिए बेहतर वातावरण’ इस वजह से सरकारी स्कूल की अपेक्षा निजी स्कूल को पसंद किया है। तुलना में, निजी स्कूल्स आर्थिक मामलों में अच्छी तरह से प्रबंधित होते हैं और उनकी तिजोरी भरी रहती है। इससे उन्हें बच्चों को सीखने के अत्याधुनिक तरीके, उपकरण और तकनीकें उपलब्ध करवाने में मदद मिलती है। ज्यादातर निजी स्कूलों में अच्छी तरह से तैयार किए मैदान होते हैं और उनमें बच्चों के व्यक्तित्व विकास के कार्यक्रम चलाए जाते हैं।

उनमें शिक्षकों के प्रशिक्षण को बहुत महत्व दिया जाता है। इसके अलावा ये स्कूल्स नियमों का सख़्ती से पालन करते हैं। नियंत्रण की इकहरी कार्यप्रक्रिया के कारण कर्मचारियों और शिक्षकों की देखरेख तथा नियंत्रण अच्छी तरह होता है। वहीं सरकारी स्कूल्स इन मामलों में ढीले पड़ते हैं, क्योंकि उन्हें हर निर्णय और निर्देश के लिए राज्य सरकार की अनुमति का इंतजार करना पड़ता है।

अंतर्राष्ट्रीय स्कूल्स अब ‘ग्लोबल’ स्टाइल की शिक्षा पाने का मंत्र बन गए हैं। परीक्षा के अलग और खुले तरीके, विषयों का कॉम्बिनेशन और स्मार्ट लर्नर प्रोग्राम्स जैसी खासियतों की वजह से भारत के निजी स्कूल धीरे-धीरे ‘इंटरनेशनल’ लेबल अपना रहे हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से वे शहरी भारतीय और व्यवसाय के लिए परिवार के साथ स्वदेश आए हुए प्रवासी भारतीयों की जरूरतें पूरी कर सकेंगे।

कमियां

निजी स्कूलों में कुछ कमियां भी हैं। एक तो, बच्चों को प्रदर्शन संबंधित जबरदस्त दबाव के नीचे पढ़ना पड़ता है। इसके अलावा, वे पढ़ाई के अलावा अन्य कामों में भी अव्वल आएं, ऐसी अपेक्षा उनसे की जाती है। बच्चे, शिक्षा (academics) के साथ ही पाठ्येतर गतिविधियों (extra-curricular) या जैसे कि कहा जाता है, सह-शैक्षिक ( co-scholastic) गतिविधियों में बाजीगरी करते हुए एक-दूसरे को पछाड़ने की कोशिश में जुटे हुए दिखाई देते हैं। नतीजा ये है कि स्कूलिंग एक और चूहा-दौड़ बन गई है और शिक्षा की खुशी और खोज दोयम स्थान पर रह गए हैं। दूसरी ओर सरकारी शिक्षा प्रणालियों में कुशल शिक्षकों का भले ही अभाव हो, लेकिन वे खोजने और सीखने का, जो कि हर बालक का अधिकार है, खुशनुमा माहौल रखने में आज भी सफल हैं।

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