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- विश्वविद्यालयों को रोजगारपरक शिक्षा पर करना होगा फोकसः प्रो. सुनील कुमार
दुनियाभर की शिक्षा व्यवस्था बदलाव के एक नए दौर से गुजर रही है, जहां किताबी ज्ञान के मुकाबले प्रायोगिक और रोजगारपरक शिक्षा को प्रमुखता मिल रही है। ऐसे में अनुसंधान एवं विकास (आरएंडडी) का महत्व और अधिक बढ़ गया है। इतना ही नहीं, रोजमर्रा की गतिविधियों और विभिन्न औद्योगिक कार्यों में कृत्रिम बुद्धिमत्ता या मशीनी बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस) का उपयोग लगातार बढ़ रहा है, जिसने आरएंडडी की जरूरत पर नए सिरे से बल दिया है। एसोसिएशन ऑफ अमेरिकन यूनिवर्सिटीज डेलिगेशन के हिस्से के तौर पर प्रो. सुनील कुमार भारत में विभिन्न संस्थानों के साथ अकादमिक शोध और शैक्षिक साझेदारी पर फोकस कर रहे हैं। अमेरिका स्थित अग्रणी रिसर्च संस्थान टफ्स यूनिवर्सिटी के प्रेसिडेंट प्रोफेसर सुनील कुमार ने हालिया भारत दौरे पर अपॉर्च्युनिटी इंडिया के संपादक संजीव कुमार झा व वरिष्ठ संवाददाता सुषमाश्री के साथ इन्हीं विषयों पर विस्तार से चर्चा की। पेश हैं उनसे बातचीत के संपादित अंशः
ओआई: बीते कुछ वर्षों में भारतीय शिक्षा प्रणाली और भारतीय छात्रों की सोच में जो भी बदलाव आए हैं, उन्हें आप किस तरह से लेते हैं?
प्रोफेसर कुमार: मैं इसे दो प्रश्नों के रूप में लेता हूं। सबसे पहले भारत की व्यवस्था की बात कर लेते हैं। टफ्स सभी भारतीय विश्वविद्यालयों से नहीं, लेकिन कई भारतीय विश्वविद्यालयों से अलग है क्योंकि अनुसंधान, विकास और कौशल विकास (स्किल डेवलपमेंट) के क्षेत्र में यह दुनियाभर में एक स्थापित विश्वविद्यालय है। हमारे यहां लिबरल आर्ट्स और अंडरग्रेजुएट स्किल डेवलपमेंट से जुड़े पाठ्यक्रमों पर विशेष जोर दिया जाता है, और हमें इस पर बहुत गर्व है। दूसरा- टफ्स में आप प्रमुख विषय के तौर पर इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे हैं या छोटी अवधि का आंत्रप्रेन्योरशिप पाठ्यक्रम, आप यहां सामाजिक विज्ञान और मानविकी विषयों में भी नामांकन करवा सकते हैं। मेरा मानना है कि यह एक ऐसा संस्थान है, जहां होना छात्रों के लिए बेहतर है। यही वजह है कि हमारा संस्थान कई भारतीय संस्थानों से कई मायनों में अलग है। जहां तक छात्रों की तैयारी की बात है तो हमें कई ऐसे भारतीय छात्र मिलते हैं, जो काफी अच्छा कर रहे होते हैं।
ओआई: कौशल विकास को लेकर भी भारत लगातार आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा है। अमेरिका के मुकाबले क्या आप मानते हैं कि भारत इसमें जितना कर रहा है, वह काफी है। इसे बेहतर करने के लिए क्या किया जा सकता है?
प्रोफेसर कुमार: मैं मानता हूं कि भारत की कोशिश सराहनीय है। मुझे नहीं लगता कि अमेरिका के लोग कौशल विकास के मामले में उन सभी क्षेत्रों में बहुत बेहतर कर रहे हैं, जहां भी उसकी जरूरत है। न ही मैं यह कह सकता हूं कि अमेरिका की यूनिवर्सिटीज में फिलहाल इसकी जितनी शिक्षा दी जा रही है, वह काफी है। हमें ऐसी कई यूनिवर्सिटीज की जरूरत है, जो छात्रों में कौशल को बढ़ावा देने में मददगार हो। मैं कहना चाहूंगा कि न तो यूएस में और न ही भारत में हम किसी मीडिल एज व्यक्ति से यह उम्मीद करते हैं कि उम्र के इस पड़ाव पर पहुंचकर वह रिस्क ले और अपने लिए एक नई राह तलाश करे। हमें यह समझने की जरूरत है कि हम 18 की उम्र में तो रिस्क लेने के लिए कह सकते हैं, लेकिन 32 की उम्र में नहीं। इसलिए मैं मानता हूं कि उच्च शिक्षा में, या कहें कि कॉलेज स्तर पर ही हमें छात्रों में कौशल बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए।
ओआई: आप यहां अमेरिकी विश्वविद्यालयों के संगठन के प्रतिनिधि बनकर आए हैं। भारतीय शिक्षण संस्थानों के साथ आप किस तरह के गठजोड़ और सहयोग की तलाश कर रहे हैं?
प्रोफेसर कुमार: हम उन विषयों पर गहराई से शोध करते रहे हैं, जिनका मानव जाति की सामाजिक और आर्थिक तरक्की में विशेष योगदान है। तो यह स्वाभाविक है कि हमें उन विषयों पर काम करने वाले छात्र हमेशा से मिलते रहे हैं। हमने भारत में कई विदेशी विषयों या मुद्दों पर अध्ययन किया है, विशेषकर मानवता, जलवायु परिवर्तन, स्वास्थ्य सेवा, महामारी और एआई जैसी उभरती प्रौद्योगिकियों पर। यह मुख्यतः अनुसंधान के बारे में है। जहां तक भारत में परिसर स्थापित करने की बात है तो मुझे नहीं लगता कि निकट भविष्य में टफ्स उस रास्ते पर जाएगा। हम चाहते हैं कि हमारे छात्र भारतीय संस्थानों में आकर अध्ययन करें, ताकि उन्हें दोनों ही देशों की शिक्षा का लाभ मिल सके। इसी तरह, हम चाहेंगे कि भारतीय छात्र भी बोस्टन आएं और पढ़ाई करें। मुझे लगता है कि हम भारत में परिसर स्थापित करने के बजाय यही तरीका अपनाएंगे।
ओआई: तो आप बहुत स्पष्ट हैं कि निकट भविष्य में, मेरा मतलब है कि 5-10 वर्षों में टफ्स विश्वविद्यालय की भारत में कोई भी शाखाएं नहीं होंगी?
प्रोफेसर कुमार: कम से कम इस समय तो मुझे यही लगता है, परंतु उसके बाद क्या होगा, इस बारे में फिलहाल कुछ कह पाना मुनासिब नहीं।
ओआई: क्या आप केवल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और रिसर्च वाले विषयों के साथ ही साझेदारी कर रहे हैं या भारतीय विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले अन्य विषयों के साथ भी?
प्रोफेसर कुमार: आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रिसर्च समेत मेडिकल के क्षेत्र में भी हम साझेदारी कर रहे हैं। असल में हम दो तरह की साझेदारी कर रहे हैं। एक- जहां भारतीय यूनिवर्सिटीज मजबूत हैं, वे उस मामले में हमसे अपनी विशेषज्ञता साझा करेंगे और दूसरे- जहां हम बेहतर हैं, वहां हम अपनी विशेषज्ञता उनके साथ बांटेंगे।
ओआई: उन कुछ संस्थानों के नाम बताएं, जिनके साथ आप साझेदारी करने वाले हैं?
प्रोफेसर कुमार: मैं आपको स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में दो साझेदारियों के बारे में बताना चाहूंगा। वेल्लोर (तमिलनाडु) में क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज (सीएमसी) है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में दशकों से दक्षिण भारत में बहुत ही सम्मानित मेडिकल कॉलेज है। इसके अलावा हमने भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के राष्ट्रीय क्षय रोग अनुसंधान संस्थान (एनआईआरटी) के साथ भी साझेदारी की है। हमारे पास एक टीबी रोकथाम कार्यक्रम है, जो लगभग 15 वर्षों से चल रहा है। ये आईसीएमआर और क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज के साथ हमारे अनुसंधान सहयोग के उदाहरण हैं।
ओआई: आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वर्तमान में हर क्षेत्र को प्रभावित करता दिख रहा है। खासतौर पर स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में इससे आमूल-चूल परिवर्तन की बात कही जा रही है। आपके हिसाब से यह रिसर्च में हमारी किस प्रकार मदद कर सकता है?
प्रोफेसर कुमार: जैसे, अगर आप चैटजीपीटी की बात करें तो यकीनन यह यूएस में कई रिसर्च करने में मदद करता है। यही नहीं, यह हर किसी के लिए मददगार भी है। आप इससे हर तरह के सवाल कर सकते हैं, जैसे कि आप यह पूछ सकते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस उच्च शिक्षा के छात्रों की किस तरह से मदद कर रहा है? वह आपके सवाल का बखूबी जवाब देगा।
ओआई: एआई तैयारियों के संदर्भ में आप भारत में कैसा भविष्य देखते हैं?
प्रोफेसर कुमार: मुझे लगता है कि भारत को एआई से जबरदस्त लाभ होने वाला है। यकीनन, इसकी चुनौतियां भी होंगी, लेकिन मुझे लगता है कि कुल मिलाकर बड़ी मात्रा में जानकारी एकत्र करने और समाधानों का उत्पादन करने की क्षमता इसके अंदर है, जो अक्सर हर मनुष्य में होना मुश्किल है। मुझे लगता है कि भविष्य में यह बेहद मूल्यवान होने जा रहा है और एआई ऐसा करने का एक तरीका होगा। तो मैं आपको कुछ उदाहरण देना चाहूंगा, जहां एआई का पर्याप्त प्रभाव पड़ेगा। एक है- जिसे व्यक्तिगत चिकित्सा कहा जाता है, जो हर किसी के लिए अलग है। और जैसे-जैसे आप उनके बारे में अधिक से अधिक चीजें सीखते हैं, सवाल यह है कि क्या आप उस विशेष संयोजन के लिए भविष्यवाणी कर सकते हैं, जो भी पैरामीटर और आनुवांशिक स्थिति किसी के पास है, क्या आप उस व्यक्ति को विशेष उपचार दे सकते हैं, जो केवल उस व्यक्ति के लिए हो? तो यह एक उदाहरण है, जहां एआई एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। दूसरा, मानव क्षमता में वृद्धि के रूप में है। उदाहरण के लिए, रेडियोलॉजी में, क्या एआई कई स्रोतों से आने वाली छवियों को संयोजित करने में मदद कर सकता है? सीटी, एमआरआई, अल्ट्रासाउंड आदि रिपोर्ट्स को संयुक्त रूप से यह तीन अलग-अलग रेडियोलॉजिस्टों से बेहतर पढ़ सकता है? ऐसे कई उदाहरण हैं। निश्चित रूप से, आपको इसे सावधानी से करना होगा क्योंकि ये महत्वपूर्ण नैतिक विचार हैं। मुझे लगता है कि भारत जैसे देश के लिए, जहां तकनीकी क्षमता और तकनीकी प्रतिभा के साथ-साथ स्वास्थ्य देखभाल में कुशल होने की आवश्यकता भी है, एआई का बहुत बड़ा प्रभाव होगा, सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
ओआई: टफ्स विश्वविद्यालय अपनी शोध गतिविधियों के लिए जाना जाता है। विश्व स्तर पर, रिसर्च के क्षेत्र में यह एक बड़ा नाम है। भारतीय विश्वविद्यालयों के वैसे छात्र, जो किसी भी प्रकार के शोध क्षेत्र से जुड़े हैं, उन्हें आपके संस्थान से किस तरह का लाभ होगा?
प्रोफेसर कुमार: सीवी रमन के दिनों (करीब 100 वर्षों) से भारत में अलग-अलग तरह के शोध किए जा रहे हैं। शोध करने के कई कारण होते हैं। उनमें से एक है- क्षमता निर्माण, ताकि अन्य लोगों को भी शोध करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सके। हर शोध का कुछ मूल्य भी है। आप जो भी दवा लेते हैं, वह शोध से निकलती है। मोबाइल, जिसके जरिये आज हम एक-दूसरे से बात कर रहे हैं, वह भी शोध से निकला है। यानी किसी भी शोध का समाज पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। तीसरा है, हमारे ज्ञान का विस्तार। जैसे- चंद्रयान मिशन की शानदार सफलता हमें चंद्रमा के बारे में अधिक जानने का मौका देती है। चंद्रमा के बारे में जानना अच्छी बात है। आपको यह समझना होगा कि हर कोई शोध नहीं करेगा। यहां तक कि अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में भी पीएचडी छात्रों की संख्या आमतौर पर स्नातक और मास्टर्स के छात्रों से कम है। यानी हर कोई शोध नहीं करता, लेकिन जो करते हैं, वे आगे बढ़ेंगे। हमारे ज्ञान को आगे बढ़ाएंगे, समाज की महत्वपूर्ण समस्याओं पर सकारात्मक प्रभाव डालेंगे।
ओआई: वर्तमान में उद्योग जगत की एक बड़ी शिकायत यह है कि शिक्षण संस्थान उनके लिए पर्याप्त कुशल मानव संसाधन उपलब्ध नहीं करा पा रहे हैं। उनका कहना है कि अधिकतर शिक्षण संस्थानों से निकल रहे बच्चे उद्योग जगत में काम के लायक कुशलता से लैस नहीं हैं, नतीजा यह होता है कि वे शिक्षित भी हो जाते हैं और बेरोजगार भी रह जाते हैं यानी उद्योग की मांग और उसे हो रही आपूर्ति में बड़ी खाई है। आप इसे कैसे देखते हैं?
प्रोफेसर कुमार: किसी भी विश्वविद्यालय में आविष्कार को व्यावसायिक रूप से व्यवहारिक बनाने या उसे व्यापक स्वीकृति दिलाने के लिए विशिष्ट शोधकर्ताओं को नियुक्त नहीं किया जाता। इसके लिए अन्य संस्थाओं की आवश्यकता है, जो शोधकर्ताओं के साथ जुड़ें। लेकिन यह बात इतनी सरल नहीं है। इसका एक दूसरा पहलू भी है, जो बेहद महत्वपूर्ण है। वर्तमान समय में, और यह कोई भारत की बात नहीं, दुनियाभर की बात है, कि नए छात्रों के लिए ट्रेनिंग या प्रशिक्षण के अलग-अलग कोर्स तो बहुत मिल जाते हैं, लेकिन 30 वर्ष या उससे अधिक उम्र के कामगारों के लिए रीस्किलिंग की कोई गुंजाइश दिखती ही नहीं है। जबकि सच यह है कि इन कामगारों की रीस्किलिंग से वे उद्योग को नई दिशा दे सकते हैं। तो हमारा ध्यान रीस्किलिंग पर भी है।
मैं मानता हूं कि कुछ पीएचडी छात्र और प्रयोगशाला में काम करने वाले, जो प्रौद्योगिकी को समझते हैं, वे एक ऐसी कंपनी शुरू करें, जो उस तकनीक को खरीदे और उसका लाभ उठा सके। टफ्स में, अपशिष्ट जल उपचार के लिए हमारे पास एक बहुत अच्छा शोध कार्यक्रम है। उस कार्यक्रम के कुछ छात्रों ने एक ऐसी तकनीक पर कंपनी बनाई, जो औद्योगिक अपशिष्ट जल को साफ करती है और अब वे इसे बढ़ा रहे हैं। हम जिसे सिंथेटिक कृषि कहते हैं, उसमें भी ऐसा ही है। सिंथेटिक कृषि असल में प्रोटीन उगाना है, जो कि चिकन, मछली आदि में मौजूद है। पर्यावरण की दृष्टि से यह टिकाऊ है। यह जमीन नहीं लेता, पानी नहीं लेता, लेकिन हम इसे एक व्यंजन की तरह उपजा सकते हैं। हालांकि, हम इसे उस पैमाने पर नहीं उपजा सकते, जहां हम एक अरब लोगों को इसे खिला सकें। इसके लिए हम एक ऐसी कंपनी में निवेश कर रहे हैं, जो पीएचडी छात्रों द्वारा शुरू की जा रही है। अमेरिका और भारत दोनों जगह कई विश्वविद्यालय इसे सफलतापूर्वक कर रहे हैं।
ओआई: जब सहयोग की बात आती है तो मैं यह जानना चाहता हूं कि आपके विश्वविद्यालय के छात्र भारतीय संस्थानों से क्या चाहते हैं और भारतीय छात्रों को आप क्या देंगे?
प्रोफेसर कुमार: मैं स्पष्ट कर दूं कि यह केवल छात्रों के बारे में नहीं है। संकाय द्वारा भी शोध किए जाते हैं इसलिए संकाय भी छात्रों की समस्याओं पर काम कर रहे हैं। वे केवल किसी ऐसे शोध की तलाश नहीं कर रहे, जो भारत में किया जा रहा हो, बल्कि कुछ ऐसा भी है, जो भारतीय अलग तरह से कर रहे हैं, इसलिए यह जानने का विषय है। यदि आप मधुमेह का अध्ययन कर रहे हैं तो अमेरिका और भारत, दोनों देशों की आनुवांशिक स्थिति के अंतर को समझना होगा। यदि आप दोनों देशों के वैसे लोगों को देखते हैं, जिनकी आनुवंशिक बनावट समान है, जैसे भारतीय मूल के लोग, जो अमेरिका में हैं तो आपको देखना होगा कि दोनों देशों के आहार और पर्यावरण की स्थिति, उन्हें मधुमेह होने के लिए अलग-अलग तरीके से कैसे प्रभावित करती है। यह आपको बताता है कि दो अलग-अलग देशों में एक ही बीमारी कैसे लोगों को प्रभावित करती है। मुझे लगता है यह एक ऐसा उदाहरण है, जहां आपको वास्तव में सीमा पार सहयोग की आवश्यकता है। हम ऐसी चीजों की तलाश कर रहे हैं।
ओआई: भारत सरकार आंत्रप्रेन्योरशिप को बढ़ावा देने के लिए काफी कुछ कर रही है। हम जानना चाहते हैं कि यूएस की तुलना में भारत में आंत्रप्रेन्योरशिप की स्थिति कैसी है?
प्रो. कुमार: भारत में आंत्रप्रेन्योर की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। बेंगलुरू में बड़ी संख्या में आंत्रप्रेन्योर्स हैं। मैं समझता हूं कि यूनिवर्सिटीज को आंत्रप्रेन्योरशिप को बढ़ावा देना चाहिए, अपने पाठ्यक्रम में आंत्रप्रेन्योरशिप को बढ़ावा देने संबंधी कुछ विषय भी जोड़ने चाहिए। हालांकि, यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि आंत्रप्रेन्योरशिप किसी भी इंसान को सिखाई नहीं जा सकती, लेकिन इससे जुड़े कुछ आधारभूत सिद्धांत अवश्य सिखाए जा सकते हैं। अगर हम टफ्स की बात करें तो हर 11 में से नौ छात्र आंत्रप्रेन्योर बनने के लिए पाठ्यक्रम का चुनाव करते हैं, लेकिन उनमें से सभी आंत्रप्रेन्योर नहीं बन जाते। उनमें से एक या दो ही आगे चलकर खुद का व्यवसाय शुरू करते हैं। इसके बावजूद मैं मानता हूं कि यह उनकी सोच में बदलाव लाता है और उन्हें अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाने में मदद करता है। अगर संस्थान चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा छात्र आंत्रप्रेन्योर बनें तो उन्हें छात्रों को रिस्क लेने के लिए तैयार करना होगा या रिस्क लेना सिखाना होगा। स्पष्ट है कि आंत्रप्रेन्योर बनने के लिए सबसे पहले जरूरी होता है कि आप रिस्क लेने के लिए तैयार रहें। आप लोगों से यह नहीं कह सकते कि वे केवल वही करें, जो सुरक्षित हो। अब चूंकि ज्यादातर लोग ऐसा ही करते हैं, इसलिए हम आंत्रप्रेन्योर को बढ़ावा नहीं दे पाते।
इसके अलावा मैं यह भी कहना चाहूंगा कि कॉम्पिटीशन एक बेहतरीन चीज है। आप अपनी पसंद के अनुसार अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया या किसी भी देश में शिक्षा ग्रहण करने के लिए जाना चाहते हों, तो वह एक अच्छी बात है। अगर आप छात्रों के परिप्रेक्ष्य में जानने की कोशिश करें तो उनकी पसंद और चुनाव को मैं हमेशा ही एक अच्छी चीज मानूंगा। मैं चाहूंगा कि वे हमारे संस्थान में आकर पढ़ें, लेकिन अगर वे किसी और देश या किसी और संस्थान में जाकर पढ़ना चाहते हैं तो मैं वहां भी उनकी पसंद के साथ खड़ा रहना चाहूंगा।